सोमवार, 22 नवंबर 2010

ग़ज़ल



हो गए जख्म आम हैं साकी
और क्या इंतज़ाम है साकी

मैकदा, अश्क, और याद तेरी
बस ये चीज़ें तमाम हैं साकी

लोग सर फोड़ कर भी देख चुके
दुःख के पक्के मकान हैं साकी

जाम अश्कों के अब न छलकेंगे
दिल की बस्ती वीरान है साकी

जब नहीं सुनता, नहीं आता वो
कैसी तेरी अजान हैं साकी

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

नरक चौदस और माँ.

हालाँकि ये पोस्ट पुरानी है और मैं इसे पहले भेज चुका हूँ लेकिन आज बड़ी प्रासंगिक लगी इसलिए फिर से पोस्ट कर रहा हूँ. ...

"नरक चौदस के दिन
स्नान
सूर्योदय से पहले हो
वरना
नरक लगता है"
ऐसा बतलाती है माँ

और इसीलिए खुद जल्दी उठ
हमें उठा
हल्दी उबटन लगा
और नहलाती है माँ

हमारे बाद बारी होती है
घर के आँगन के बुहारे झाड़े जाने की
क्यों कि गन्दा घर नरक-सम होता है
बरसों से समझाती है माँ

क्रमशः हमें, पिता को, घर को, आँगन को,
नरक से मुक्त कराने के प्रयास के चलते
उग आता है सूर्य
और सूर्य के आँगन की दीवार पर चढ़ जाने तक
बिना नहाये रह जाती है माँ.

यही सिलसिला जारी है
बरसों से बदस्तूर .........

सोमवार, 1 नवंबर 2010

जाने क्या बात थी


ख़ाली हो गया हूँ , पूरी तरह , कवितायें सूझती ही नहीं . सब्यसाची अपनी साथ ले गया है शायद उनको..

उन्नीस तारिख ... आज पूरे बारह दिन हुए.....इतने दिन ...सोचा उसके बारे में लिखूं , पर वो जानता था के मेरे लिए महीने आखरी सप्ताह बड़ा व्यस्तता वाला होता है , इस समय उसने मेरा समय नहीं लेना चाहिए , और शायद इसीलिए , न कविता सूझी , न वो याद आया , अभी आधी रात के वक़्त , जब पिछला महीना , उसके टार्गेट सब पीछे छूट गए हैं , वो बहुत याद आ रहा है, कितना समझदार है वो , वो जानता है मुझे month end में परेशान करना ठीक नहीं था , इसलिए अब आया है. आंसू निकले जा रहे हैं , जी कर रहा है के चीख के रोऊँ, पर फिर डरता हूँ , अगर उसने सुना तो उसे बुरा लगेगा न , आखों से आंसू अनेक बार निकले मैंने हर बार हिम्मत के बांध बनाये ; पर आज रुक नहीं रहे हैं , मेरी कोई कोशिश भी नहीं है उन्हें रोकने की , क्यों कि कोई देखने वाला नहीं है. पता नहीं कविता के रूप में ये क्या निकला है , आंसू हैं शायद , या शायद फूल होंगे , पता नहीं ............




बहुत ख़ाली सा मुझको छोड़ गए हो

जाने क्यों तुम ये रिश्ता तोड़ गए हो

अब तो बस बुत बना सा सोचता हूँ मैं हर वक़्त

जाने क्या बात थी , जाने क्या बात थी .



तुम आओगे ये बात हर पल जश्न का सबब थी मेरे लिए

तुम्हारे स्वागत में सजा रखे थे अनेकोनेक वंदन द्वार मैंने

मैं तुम्हारे इंतज़ार में हरेक पल तरसता तडपता था

मेरी उस तड़पन में भी तुम्हारी ही तो आस थी …. ….

अब तो बस बुत बना सा सोचता हूँ मैं हर वक़्त

जाने क्या बात थी , जाने क्या बात थी .





मैंने सुना तुम्हें अपनी सांसों में -बातों में हर वक़्त

हरेक लफ्ज़ में मेरे ,

और जब लफ्ज़ चुप रहते आँखें क्या कुछ नहीं कह जाती थी

हरेक वक़्त तुम्हारे इंतज़ार में धड़कते

मेरे दिल की धड़कन में भी तो तुम्हारी ही तो आवाज़ थी

अब तो बस बुत बना सा सोचता हूँ मैं हर वक़्त

जाने क्या बात थी , जाने क्या बात थी .



हरेक लम्हा मेरी ज़िन्दगी का तुम्हारी ताबीर से गूंजता सा था

कितने ही नाम सोच रखे थे तुम्हारे लिए , और फिर हर बार एक नया नाम

कितने दिन -कितनी रातें , हम दोनों की कितनी बातें

उन सब बातों की प्रतिध्वनियाँ भी वस्तुतः तुम्हारा ही नाद थीं

अब तो बस बुत बना सा सोचता हूँ मैं हर वक़्त

जाने क्या बात थी , जाने क्या बात थी .



आये थे तो एक बार मुझसे बात तो की होती

अरे मेरे चंदा , मेरी आँखों के मोती

बता तो दिया होता के किस बात पर हो खफा मुझसे

अपने मासूम अंदाज़ में कोई सज़ा ही दी होती

बहुत दिन से अकेले में रोता हूँ , घुटता हूँ मैं

अचानक चुप हो जिसको ध्यान से सुनता हूँ फिर मैं वो ..

तुम्हारी ही परवाज़ थी .

अब तो बस बुत बना सा सोचता हूँ मैं हर वक़्त

जाने क्या बात थी , जाने क्या बात थी .

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

फुटकर शेर

बहुत तन्हा हूँ मैं इस दौर-ए-जहाँ में अब तो ,
बहुत याद आता है अब दौर उस जवानी का.


कभी तंग जेब होकर फिरना वो मुतमईं सा ,

मेरा वक़्त-ए-मुफ़लिसी अब मुझे याद आ रहा है



तू तेरी याद तेरा ग़म

बस; अब इसके मायने हैं हम



मैंने सोचा के कहीं दूर तुझसे जा के रहूँ,

तेरी ज़मीन तेरा आसमान तेरा जहां.

जिधर भी देखता हूँ , तू -तू है ;

मुझे बता के कहाँ पर नहीं है तेरा निशां..

गुरुवार, 29 जुलाई 2010

विरह अगन

मैं जल रहा
दिए की तरह
स्वदीप्त हो रहा
आभा है - तुम्हारी स्मृतियों
भरे वो पल
आशा है - तुम आओगी ,
और सहलाओगी
कोमल से
मन के कोंपल.

मैं जल रहा
वस्तुतः
तुम्हारी ही तो स्मृत्तियों में
और सोचता कि
तुम आओगी.
बन प्रेम पवन
मुझे छू जाओगी
इस दाह को बुझाओगी.

सोमवार, 28 जून 2010

बात क्या है जी

शहर वीराँ हैं बात क्या है जी
हम तो मेहमाँ हैं बात क्या है जी

गर्द चेहरे पे जमी रहती थी जिनके पहरों
आज वो खां हैं बात क्या है जी

जब्त कब तक किये रहोगे यूँ
कुछ तो कहना है बात क्या है जी

गर वो कहते तो बहुत कुछ कहते
जब्त अरमाँ हैं बात क्या है जी

दिल धड़कता है तो आवाज़ उनकी आती है
क्या करिश्मा है, बात क्या है जी

क्यों मेरे गाँव की मिट्टी की महक आती है
आई क्या माँ है , बात क्या है जी

सोमवार, 7 जून 2010

हाईकू


1)

मन उदास
तेरी याद /फिर आई

2)
मेरी हंसी
आती है लौट कर /तेरे आने से

3)
फिर आई
तू /और मेरी हंसी

4)
सूखें है
होठों से हंसी /पोखर धरती पर से

5)
पानी
आँखों में था /नल में नहीं

6)
नर्मदा आई शहर
दुलार करने/गोद में भर

7)
फैसला आया /हादसे का
सज़ा कब ?


8)
सूख चुके आंसू /और पोखर
पानी आया नहीं


9)
बसने लगे /नए गाँव
पुराने मसान पर

10)
विकास हुआ/पेड़ों को काट
रोड़ बने

शनिवार, 15 मई 2010

बहाना

एक कक्षा में एक बच्चा रोज़ देर से आता था , पढने लिखने में कुछ खास नहीं था , जब भी शिक्षक उससे देर से आने का कारण पूछते वो कहता की उसके पिता बीमार हैं और इस लिए उसे घर पर उनके कुछ काम करने पड़ते हैं , रोज़ रोज़ ये ही कारण सुन कर शिक्षक भी समझ गए की बच्चा बहानेबाज़ है , सारे बच्चे उसका मजाक बनाते, फिर एक दिन वो बच्चा समय पर आने लगा , कुछ दिन तक उसकी इस आदत को देख एक दिन शिक्षक ने उससे पूछा की क्या अब उसके पिता उसे काम नहीं बताते इस पर उस बच्चे ने कहा नहीं, शिक्षक ने फिर पूछा क्यों क्या उन्होंने कोई नौकर रख लिया है इस पर सारी कक्षा के बच्चे हस पड़े, उस लड़के ने कहा नहीं क्योंकि पिता का देहांत हो गया है , इस पर शिक्षक सहित पूरी कक्षा सन्न रह गयी.

गुरुवार, 13 मई 2010

निमाड़ी क्षणिकाएं

निमाड़ी क्षणिकाएं
जो वस्तुतः मनी मोहन सिंह जी की सरकार के विश्वासमत के समय अचानक सूझी थीं

म्हारा गाँव म SS नी छे रोड
न उनख ss बटी गया कई करोड़
गिणी गिणी न मरी जओगा
म्हख S कओज की पत्थर तोड़

दो सौ बहोत्तर को चक्कर थो
राजा बणी गयो जो फक्कड़ थो
लोकतंत्र की चिता जल-S-ई न
भुट्टो सेक्यो अक्कल को

बुधवार, 12 मई 2010

माँ है

माँ है तो लोरी है
कहानी है
माँ है तो बचपन की हर याद
सुहानी है.

माँ है तो निष्कपट प्रेम
की धार है
माँ है तो शक्ति है
आधार है .

माँ है तो दूध है
दूध का कर्ज है
माँ है बे असर
हर मर्ज है.

माँ है तो वात्सल्य है
ममता है
माँ है तो शीश कहीं और
कहाँ नमता है?

माँ है तो करुणा है
क्षमा है
माँ है तो
रोना मना है.

मैं मुस्काता ही जाऊं

कार्तिकेय ये कविता तुम्हे समर्पित है , ये कविता मैंने करीब एक साल पहले लिखी थी और लिख कर भूल गया , आज जब इसे पढ़ा तो लगा जैसे ये तुम्हीं को ध्यान में रख कर लिखी हो.


जब जब आये रुदन मुझे
तब मेघराज तुम आ जाना
ले कर के घनघोर घटा फिर
बरस बरस बरसा जाना

तेरे उस जल के भीतर ही
अश्रु मेरे भो छुप जाएँ
जल में जल मिल जाए
और ये विश्व मुझे हँसता पाए

क्वचित मात्र भी भान न हो
मेरे दुःख का इन लोगों को
बस मुस्काता ही भोगूँ मैं
इस जीवन के भोगों को

त्रास बड़े हों या की छोटे
मैं मुस्काता ही जाऊं
सुख या दुःख तेरे प्रसाद हैं
ले आनंद उन्हें पाऊं

है जीवन ये बड़ा आनंदी
ये सन्देश मुझे तो है
इसको मैं सब तक पहुंचाऊं
इतनी शक्ति मुझे दे दे .

बात करते हो

किस ज़माने की बात करते हो
आजमाने की बात करते हो

दर्द की हद से हम गुज़र भी चुके
तिलमिलाने की बात करते हो

रो चुके हाल-ऐ-दिल सर-ऐ-बाज़ार
तुम जताने की बात करते हो

इस चमन में युगों से सूखा है
ग़ुल खिलाने की बात करते हो

मैं नहीं हूँ किसी से रूठा हुआ
क्यों मानाने की बात करते हो

है अँधेरा बहुत सियाह यहाँ
घर जलाने की बात करते हो

आ भी जाते हो चुप से ख्वाबों में
और न आने की बात करते हो

है उदासी अब तो मेरा सबब
मुस्कुराने की बात करते हो

खुद गरेबाँ में झांक कर देखो
क्यों ज़माने की बात करते हो

मंगलवार, 11 मई 2010

इक दिन क्यों ?

शिक्षक दिन
फिर आया
और लाया
औपचारिकताओं का एक समारोह अपने साथ
फिर भाषण फिर कविता
गुलदस्ते और धन्यवाद
फिर बातें पिछली सी
चिकनी सी चुपडी सी
फिर मंडन महिमा का
शिक्षक की गरिमा का ..
और कहते .....
हे गुरूजी ......
अज्ञ को विज्ञ कर आपने हित किया
धन्य हैं धन्य हैं ज्ञान दें नित नया
आप तो महान हैं विद्या के प्राण हैं
प्रथम पूज्य शिक्षकगण स्वीकारें अभिनन्दन
मेरा मन ...
मेरा मन ,
मेरा मन पूछे नित एक प्रश्न
इक दिन क्यों ?
इक दिन क्यों भाषण क्यों गुलदस्ते गायन क्यों
महिमा का मंडन क्यों अंतर से खंडन क्यों
एक प्रश्न इक दिन क्यों
शिक्षक की याद आज इक दिन क्यों
आओ हम मिल कर के सोचें बस इक दिन क्यों
सकल वर्ष शिक्षक को दें आदर अन्तर से करें नमन
फिर बनायें शिक्षक दिन वर्ष के हर इक दिन को

इक दिन क्यों .......

समय चक्र

ये सच है न होगा साथ
वो कल
लेकिन आज ही की तरह आयेंगे
आ के गुज़र जायेंगे
ये पल
आज जब उसे अपने करीब पाता हूँ ,
किंचित सा घबराता हूँ
के कल
जब वो साथ न होगा साथ होगा
मेरा एकाकीपन, अपने में
उसकी यादों को समेटे हुए
यादें उन अजीज़ पलों की
जो अब भी गुज़रते जा रहे हैं
मुस्कुराते मुहं चिढाते
मैं प्रयास करता हूँ इन्हें पकडे रखने का किन्तु
असफल
हाय ये पल …………..


फिर सोचता हूँ .....

जब वो न होगा साथ
क्या वो साथ तब न होगा ?
न होगा नींदों में मेरी, या ख्वाबों में वो न होगा
न होगा दिन मेरे या रातों में वो न होगा
न होगा चुप्पी में मेरी या बातों में वो न होगा
साथ जब न होगा वो, साथ तब भी वो मेरे होगा

और फिर ....................

शायद ...................

पतझड़ के बाद पुनः विस्फुतित होंगे
नव किसलय
विरह त्रिशाग्नी बन प्रेम की ठंडी पवन


गाएगी प्रेम लय. ................

मेरे खेत का बूढा कुँआ

मेरे खेत का बूढा कुँआ
फूटी किस्मत को रोता है
बरसों तक जिस खेत को सींचा
अब वो हिस्सों में खोता है

अलग अलग नामों पे होंगे
दिल के अलग अलग सब हिस्से
जहाँ कभी बस प्रेम भाव था
देखो बटवारा होता है मेरे खेत ……………

भ्रातॄ प्रेम अब कहाँ वो सारा
कहाँ गया वो भारत बेचारा
नए खेत की नयी मेड़ पर
देखो लक्षमण भी रोता है मेरे खेत ……………

प्रेम की जैसे सूखी नदियाँ
जड़ से उखड रहे सब रिश्ते
अपनों में अपनों को ढूंढता
हर आदमी यहाँ होता है मेरे खेत ……………..

खोये हैं राम सम बेटे
लखन भारत सम भाई खोये
खोयी है जीजा सम माता
लगता है भारत सोता है मेरे खेत …………….

आज लगे यह दिवा स्वप्न सा
किन्तु अटल विश्वास ये मेरा
कल फिर ऐसा कल आएगा
यह परिदृश्य बदल जायेगा
प्रेम अंकुरण हो जायेगा

मेरे खेत से दूर कहीं पर
प्रेम गीत कोई गाता है..........

किताबें

अब रह लेती हैं मेरी किताबें
उन कोमल हाथों के स्पर्श से
पुलकित हुए बिना भी
बस की सख्त रेलिंग पर
गंदे से झोले या बड़े से सूटकेस के साथ
कर लेती हैं वास
निश्वास
क्योंकि किताबें अब सिर्फ
किताबें रह गयीं हैं
जो जिया नहीं करतीं
और चिठ्ठियों का आदान प्रदान
किया नहीं करतीं.

मुठ्ठी से खिसकती रेत

मुठ्ठी से खिसकती रेत जैसा
कभी कभी मुझे अपना
आत्मस्वाभिमान लगता है
जितना दबाकर रखने का प्रयत्न करता हूँ इसे
उतना ही ये और खिसकता जाता है
ये सोच कर घबराता हूँ कि कभी
जीवन के रास्तों पर दौड़ते हुए, चहलकदमी करता
कहीं मुझे मेरा कल मिल गया तो उसे क्या जवाब दूंगा ?
कहाँ गया उसका दिया आत्मस्वाभिमान ?
जो उसने संजो कर रखा था बड़े जतन से और
मुझे दिया था जिंदिगी की रिले दौड़ में दौड़ते हुए न जाने कब
हाँ, तब मैं कहूँगा कि तुम्हीं ने तो कहा था कि
जिन्दगी हर दौड़ में जीतना, कभी हारना मत .
बस इसी दौड़ में जीतने कि चाह में शायद
कहीं ये मेरी मुठ्ठी से खिसकना शुरू हुआ
और फिर दौड़ते दौड़ते न जाने कब
ये रेत मेरी मुठ्ठी से खाली हो गयी ....
मेरा कल मेरी तरफ देखेगा
निरीह दृष्टी से,
बगैर कुछ कहे शायद ... फिर
चल देगा
पर अब उसकी चाल में वो मस्ती नहीं होगी,
भय होगा
और विरक्ति भरा
एक ह्रदय होगा
आत्मस्वाभिमान को खो कर
कुछ खोखली सी उपलब्धियों को पाना ...
सार हीन सा लगेगा उसे
और ये सोच कर अपनी मुठ्ठी और कस लेता हूँ मैं
और ताकत लगा दौड़ने लगता हूँ ....
उसे किये एक वादे को पूरा करने के प्रयत्न में. ...

नविन वर्ष फिर समक्ष

नवीन वर्ष

सूरज की किरणों का नव स्पर्श

नव आनंद , नव क्रंदन

नवीन वर्ष अभिनन्दन



मन उत्सुक ,

उठती है नव तरंग

अंग -अंग ;

खिलते हैं नवल पुष्प

ले सहस्त्र नवीन रंग



ले नवीन आशाएं ,

मन उड़ता नव उड़ान .

संकल्पों का उत्सव ,

देता है नवल प्राण .



नविन मार्ग , नवल लक्ष्य ,

और प्रयत्न लक्ष – लक्ष ;

लक्ष्यों का कर अर्जन ,

नित विजयी हो गर्जन .



कर प्रयत्न बार बार ,

मन न माने ये हार ;

कर गुंजित तन मन को ,

नविन लक्ष्य, लक्ष्य पार.



एक बाद एक लक्ष्य ,

वर्ष भर अनेक लक्ष्य;

मन विस्मृत समय काल ,

नविन वर्ष फिर समक्ष.

अब सुख दे

क्षण क्षण को,
इस मन को,
आनंदमयी कर दे;
सुख नभ भर कर
अब दे.

अंतर की ज्वाला है,
लम्बी एक माला है,
कण भर की तृप्ति को,
सदियों तक पाला है,

अब जब दे, बस सुख दे ,
सागर दे सूरज दे;
अंतर्मन तर कर दे,
मधुक्षण अब
भर-भर दे.

और फिर जब मधुक्षण दे
क्षण क्षण को
युग का - सा
कर दे.

रात के पिछले पहर

जब वो मुझको याद आई रात के पिछले पहर,
जिंदगी फिर मुस्कुराई रात के पिछले पहर .

चांदनी शरमा रही थी अपनी पलकों को झुका ,
चाँद ने फिर अंख दबाई रात के पिछले पहर .

जागना पागल-सा फिरना बडबडाना बस यूँ हीं,
ये मुहब्बत संग लायी रात के फिछले पहर .

लौट आया आज जब वो घर पे साढ़े सात को,
उसकी बीवी मुस्कुराई रात के पिछले पहर .

बेटा ज्यादा नंबरों के वास्ते घर से गया था ,
लौट के फिर लाश आई रात के पिछले पहर .

रात भर जागा था बापू अपने बिस्तर पर यूँ हीं,
कल भी बेटी late आई रात के पिछले पहर .

आइना देखा तो मुझको तेरी सूरत ही दिखी ,
मेरी हसरत रंग लायी रात के पिछले पहर .

जन्नतों की हो गयी ताबीर उसको बारबां जब,
उसकी बेटी मुस्कुराई रात के पिछले पहर .

कितनी लज्ज़तदार थी वो एक रोटी जो मुझे,
माँ ने हाथों से खिलाई रात के पिछले पहर .

नरक चौदस और माँ.

"नरक चौदस के दिन
स्नान
सूर्योदय से पहले हो
वरना
नरक लगता है"
ऐसा बतलाती है माँ

और इसीलिए खुद जल्दी उठ
हमें उठा
हल्दी उबटन लगा
और नहलाती है माँ

हमारे बाद बारी होती है
घर के आँगन के बुहारे झाड़े जाने की
क्यों कि गन्दा घर नरक-सम होता है
बरसों से समझाती है माँ

क्रमशः हमें, पिता को, घर को, आँगन को,
नरक से मुक्त कराने के प्रयास के चलते
उग आता है सूर्य
और सूर्य के आँगन की दीवार पर चढ़ जाने तक
बिना नहाये रह जाती है माँ.

यही सिलसिला जारी है
बरसों से बदस्तूर .........