मंगलवार, 11 मई 2010

मुठ्ठी से खिसकती रेत

मुठ्ठी से खिसकती रेत जैसा
कभी कभी मुझे अपना
आत्मस्वाभिमान लगता है
जितना दबाकर रखने का प्रयत्न करता हूँ इसे
उतना ही ये और खिसकता जाता है
ये सोच कर घबराता हूँ कि कभी
जीवन के रास्तों पर दौड़ते हुए, चहलकदमी करता
कहीं मुझे मेरा कल मिल गया तो उसे क्या जवाब दूंगा ?
कहाँ गया उसका दिया आत्मस्वाभिमान ?
जो उसने संजो कर रखा था बड़े जतन से और
मुझे दिया था जिंदिगी की रिले दौड़ में दौड़ते हुए न जाने कब
हाँ, तब मैं कहूँगा कि तुम्हीं ने तो कहा था कि
जिन्दगी हर दौड़ में जीतना, कभी हारना मत .
बस इसी दौड़ में जीतने कि चाह में शायद
कहीं ये मेरी मुठ्ठी से खिसकना शुरू हुआ
और फिर दौड़ते दौड़ते न जाने कब
ये रेत मेरी मुठ्ठी से खाली हो गयी ....
मेरा कल मेरी तरफ देखेगा
निरीह दृष्टी से,
बगैर कुछ कहे शायद ... फिर
चल देगा
पर अब उसकी चाल में वो मस्ती नहीं होगी,
भय होगा
और विरक्ति भरा
एक ह्रदय होगा
आत्मस्वाभिमान को खो कर
कुछ खोखली सी उपलब्धियों को पाना ...
सार हीन सा लगेगा उसे
और ये सोच कर अपनी मुठ्ठी और कस लेता हूँ मैं
और ताकत लगा दौड़ने लगता हूँ ....
उसे किये एक वादे को पूरा करने के प्रयत्न में. ...

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