मंगलवार, 11 मई 2010

इक दिन क्यों ?

शिक्षक दिन
फिर आया
और लाया
औपचारिकताओं का एक समारोह अपने साथ
फिर भाषण फिर कविता
गुलदस्ते और धन्यवाद
फिर बातें पिछली सी
चिकनी सी चुपडी सी
फिर मंडन महिमा का
शिक्षक की गरिमा का ..
और कहते .....
हे गुरूजी ......
अज्ञ को विज्ञ कर आपने हित किया
धन्य हैं धन्य हैं ज्ञान दें नित नया
आप तो महान हैं विद्या के प्राण हैं
प्रथम पूज्य शिक्षकगण स्वीकारें अभिनन्दन
मेरा मन ...
मेरा मन ,
मेरा मन पूछे नित एक प्रश्न
इक दिन क्यों ?
इक दिन क्यों भाषण क्यों गुलदस्ते गायन क्यों
महिमा का मंडन क्यों अंतर से खंडन क्यों
एक प्रश्न इक दिन क्यों
शिक्षक की याद आज इक दिन क्यों
आओ हम मिल कर के सोचें बस इक दिन क्यों
सकल वर्ष शिक्षक को दें आदर अन्तर से करें नमन
फिर बनायें शिक्षक दिन वर्ष के हर इक दिन को

इक दिन क्यों .......

समय चक्र

ये सच है न होगा साथ
वो कल
लेकिन आज ही की तरह आयेंगे
आ के गुज़र जायेंगे
ये पल
आज जब उसे अपने करीब पाता हूँ ,
किंचित सा घबराता हूँ
के कल
जब वो साथ न होगा साथ होगा
मेरा एकाकीपन, अपने में
उसकी यादों को समेटे हुए
यादें उन अजीज़ पलों की
जो अब भी गुज़रते जा रहे हैं
मुस्कुराते मुहं चिढाते
मैं प्रयास करता हूँ इन्हें पकडे रखने का किन्तु
असफल
हाय ये पल …………..


फिर सोचता हूँ .....

जब वो न होगा साथ
क्या वो साथ तब न होगा ?
न होगा नींदों में मेरी, या ख्वाबों में वो न होगा
न होगा दिन मेरे या रातों में वो न होगा
न होगा चुप्पी में मेरी या बातों में वो न होगा
साथ जब न होगा वो, साथ तब भी वो मेरे होगा

और फिर ....................

शायद ...................

पतझड़ के बाद पुनः विस्फुतित होंगे
नव किसलय
विरह त्रिशाग्नी बन प्रेम की ठंडी पवन


गाएगी प्रेम लय. ................

मेरे खेत का बूढा कुँआ

मेरे खेत का बूढा कुँआ
फूटी किस्मत को रोता है
बरसों तक जिस खेत को सींचा
अब वो हिस्सों में खोता है

अलग अलग नामों पे होंगे
दिल के अलग अलग सब हिस्से
जहाँ कभी बस प्रेम भाव था
देखो बटवारा होता है मेरे खेत ……………

भ्रातॄ प्रेम अब कहाँ वो सारा
कहाँ गया वो भारत बेचारा
नए खेत की नयी मेड़ पर
देखो लक्षमण भी रोता है मेरे खेत ……………

प्रेम की जैसे सूखी नदियाँ
जड़ से उखड रहे सब रिश्ते
अपनों में अपनों को ढूंढता
हर आदमी यहाँ होता है मेरे खेत ……………..

खोये हैं राम सम बेटे
लखन भारत सम भाई खोये
खोयी है जीजा सम माता
लगता है भारत सोता है मेरे खेत …………….

आज लगे यह दिवा स्वप्न सा
किन्तु अटल विश्वास ये मेरा
कल फिर ऐसा कल आएगा
यह परिदृश्य बदल जायेगा
प्रेम अंकुरण हो जायेगा

मेरे खेत से दूर कहीं पर
प्रेम गीत कोई गाता है..........

किताबें

अब रह लेती हैं मेरी किताबें
उन कोमल हाथों के स्पर्श से
पुलकित हुए बिना भी
बस की सख्त रेलिंग पर
गंदे से झोले या बड़े से सूटकेस के साथ
कर लेती हैं वास
निश्वास
क्योंकि किताबें अब सिर्फ
किताबें रह गयीं हैं
जो जिया नहीं करतीं
और चिठ्ठियों का आदान प्रदान
किया नहीं करतीं.

मुठ्ठी से खिसकती रेत

मुठ्ठी से खिसकती रेत जैसा
कभी कभी मुझे अपना
आत्मस्वाभिमान लगता है
जितना दबाकर रखने का प्रयत्न करता हूँ इसे
उतना ही ये और खिसकता जाता है
ये सोच कर घबराता हूँ कि कभी
जीवन के रास्तों पर दौड़ते हुए, चहलकदमी करता
कहीं मुझे मेरा कल मिल गया तो उसे क्या जवाब दूंगा ?
कहाँ गया उसका दिया आत्मस्वाभिमान ?
जो उसने संजो कर रखा था बड़े जतन से और
मुझे दिया था जिंदिगी की रिले दौड़ में दौड़ते हुए न जाने कब
हाँ, तब मैं कहूँगा कि तुम्हीं ने तो कहा था कि
जिन्दगी हर दौड़ में जीतना, कभी हारना मत .
बस इसी दौड़ में जीतने कि चाह में शायद
कहीं ये मेरी मुठ्ठी से खिसकना शुरू हुआ
और फिर दौड़ते दौड़ते न जाने कब
ये रेत मेरी मुठ्ठी से खाली हो गयी ....
मेरा कल मेरी तरफ देखेगा
निरीह दृष्टी से,
बगैर कुछ कहे शायद ... फिर
चल देगा
पर अब उसकी चाल में वो मस्ती नहीं होगी,
भय होगा
और विरक्ति भरा
एक ह्रदय होगा
आत्मस्वाभिमान को खो कर
कुछ खोखली सी उपलब्धियों को पाना ...
सार हीन सा लगेगा उसे
और ये सोच कर अपनी मुठ्ठी और कस लेता हूँ मैं
और ताकत लगा दौड़ने लगता हूँ ....
उसे किये एक वादे को पूरा करने के प्रयत्न में. ...

नविन वर्ष फिर समक्ष

नवीन वर्ष

सूरज की किरणों का नव स्पर्श

नव आनंद , नव क्रंदन

नवीन वर्ष अभिनन्दन



मन उत्सुक ,

उठती है नव तरंग

अंग -अंग ;

खिलते हैं नवल पुष्प

ले सहस्त्र नवीन रंग



ले नवीन आशाएं ,

मन उड़ता नव उड़ान .

संकल्पों का उत्सव ,

देता है नवल प्राण .



नविन मार्ग , नवल लक्ष्य ,

और प्रयत्न लक्ष – लक्ष ;

लक्ष्यों का कर अर्जन ,

नित विजयी हो गर्जन .



कर प्रयत्न बार बार ,

मन न माने ये हार ;

कर गुंजित तन मन को ,

नविन लक्ष्य, लक्ष्य पार.



एक बाद एक लक्ष्य ,

वर्ष भर अनेक लक्ष्य;

मन विस्मृत समय काल ,

नविन वर्ष फिर समक्ष.

अब सुख दे

क्षण क्षण को,
इस मन को,
आनंदमयी कर दे;
सुख नभ भर कर
अब दे.

अंतर की ज्वाला है,
लम्बी एक माला है,
कण भर की तृप्ति को,
सदियों तक पाला है,

अब जब दे, बस सुख दे ,
सागर दे सूरज दे;
अंतर्मन तर कर दे,
मधुक्षण अब
भर-भर दे.

और फिर जब मधुक्षण दे
क्षण क्षण को
युग का - सा
कर दे.

रात के पिछले पहर

जब वो मुझको याद आई रात के पिछले पहर,
जिंदगी फिर मुस्कुराई रात के पिछले पहर .

चांदनी शरमा रही थी अपनी पलकों को झुका ,
चाँद ने फिर अंख दबाई रात के पिछले पहर .

जागना पागल-सा फिरना बडबडाना बस यूँ हीं,
ये मुहब्बत संग लायी रात के फिछले पहर .

लौट आया आज जब वो घर पे साढ़े सात को,
उसकी बीवी मुस्कुराई रात के पिछले पहर .

बेटा ज्यादा नंबरों के वास्ते घर से गया था ,
लौट के फिर लाश आई रात के पिछले पहर .

रात भर जागा था बापू अपने बिस्तर पर यूँ हीं,
कल भी बेटी late आई रात के पिछले पहर .

आइना देखा तो मुझको तेरी सूरत ही दिखी ,
मेरी हसरत रंग लायी रात के पिछले पहर .

जन्नतों की हो गयी ताबीर उसको बारबां जब,
उसकी बेटी मुस्कुराई रात के पिछले पहर .

कितनी लज्ज़तदार थी वो एक रोटी जो मुझे,
माँ ने हाथों से खिलाई रात के पिछले पहर .

नरक चौदस और माँ.

"नरक चौदस के दिन
स्नान
सूर्योदय से पहले हो
वरना
नरक लगता है"
ऐसा बतलाती है माँ

और इसीलिए खुद जल्दी उठ
हमें उठा
हल्दी उबटन लगा
और नहलाती है माँ

हमारे बाद बारी होती है
घर के आँगन के बुहारे झाड़े जाने की
क्यों कि गन्दा घर नरक-सम होता है
बरसों से समझाती है माँ

क्रमशः हमें, पिता को, घर को, आँगन को,
नरक से मुक्त कराने के प्रयास के चलते
उग आता है सूर्य
और सूर्य के आँगन की दीवार पर चढ़ जाने तक
बिना नहाये रह जाती है माँ.

यही सिलसिला जारी है
बरसों से बदस्तूर .........