सोमवार, 1 नवंबर 2010
जाने क्या बात थी
ख़ाली हो गया हूँ , पूरी तरह , कवितायें सूझती ही नहीं . सब्यसाची अपनी साथ ले गया है शायद उनको..
उन्नीस तारिख ... आज पूरे बारह दिन हुए.....इतने दिन ...सोचा उसके बारे में लिखूं , पर वो जानता था के मेरे लिए महीने आखरी सप्ताह बड़ा व्यस्तता वाला होता है , इस समय उसने मेरा समय नहीं लेना चाहिए , और शायद इसीलिए , न कविता सूझी , न वो याद आया , अभी आधी रात के वक़्त , जब पिछला महीना , उसके टार्गेट सब पीछे छूट गए हैं , वो बहुत याद आ रहा है, कितना समझदार है वो , वो जानता है मुझे month end में परेशान करना ठीक नहीं था , इसलिए अब आया है. आंसू निकले जा रहे हैं , जी कर रहा है के चीख के रोऊँ, पर फिर डरता हूँ , अगर उसने सुना तो उसे बुरा लगेगा न , आखों से आंसू अनेक बार निकले मैंने हर बार हिम्मत के बांध बनाये ; पर आज रुक नहीं रहे हैं , मेरी कोई कोशिश भी नहीं है उन्हें रोकने की , क्यों कि कोई देखने वाला नहीं है. पता नहीं कविता के रूप में ये क्या निकला है , आंसू हैं शायद , या शायद फूल होंगे , पता नहीं ............
बहुत ख़ाली सा मुझको छोड़ गए हो
जाने क्यों तुम ये रिश्ता तोड़ गए हो
अब तो बस बुत बना सा सोचता हूँ मैं हर वक़्त
जाने क्या बात थी , जाने क्या बात थी .
तुम आओगे ये बात हर पल जश्न का सबब थी मेरे लिए
तुम्हारे स्वागत में सजा रखे थे अनेकोनेक वंदन द्वार मैंने
मैं तुम्हारे इंतज़ार में हरेक पल तरसता तडपता था
मेरी उस तड़पन में भी तुम्हारी ही तो आस थी …. ….
अब तो बस बुत बना सा सोचता हूँ मैं हर वक़्त
जाने क्या बात थी , जाने क्या बात थी .
मैंने सुना तुम्हें अपनी सांसों में -बातों में हर वक़्त
हरेक लफ्ज़ में मेरे ,
और जब लफ्ज़ चुप रहते आँखें क्या कुछ नहीं कह जाती थी
हरेक वक़्त तुम्हारे इंतज़ार में धड़कते
मेरे दिल की धड़कन में भी तो तुम्हारी ही तो आवाज़ थी
अब तो बस बुत बना सा सोचता हूँ मैं हर वक़्त
जाने क्या बात थी , जाने क्या बात थी .
हरेक लम्हा मेरी ज़िन्दगी का तुम्हारी ताबीर से गूंजता सा था
कितने ही नाम सोच रखे थे तुम्हारे लिए , और फिर हर बार एक नया नाम
कितने दिन -कितनी रातें , हम दोनों की कितनी बातें
उन सब बातों की प्रतिध्वनियाँ भी वस्तुतः तुम्हारा ही नाद थीं
अब तो बस बुत बना सा सोचता हूँ मैं हर वक़्त
जाने क्या बात थी , जाने क्या बात थी .
आये थे तो एक बार मुझसे बात तो की होती
अरे मेरे चंदा , मेरी आँखों के मोती
बता तो दिया होता के किस बात पर हो खफा मुझसे
अपने मासूम अंदाज़ में कोई सज़ा ही दी होती
बहुत दिन से अकेले में रोता हूँ , घुटता हूँ मैं
अचानक चुप हो जिसको ध्यान से सुनता हूँ फिर मैं वो ..
तुम्हारी ही परवाज़ थी .
अब तो बस बुत बना सा सोचता हूँ मैं हर वक़्त
जाने क्या बात थी , जाने क्या बात थी .
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