बुधवार, 12 मई 2010

माँ है

माँ है तो लोरी है
कहानी है
माँ है तो बचपन की हर याद
सुहानी है.

माँ है तो निष्कपट प्रेम
की धार है
माँ है तो शक्ति है
आधार है .

माँ है तो दूध है
दूध का कर्ज है
माँ है बे असर
हर मर्ज है.

माँ है तो वात्सल्य है
ममता है
माँ है तो शीश कहीं और
कहाँ नमता है?

माँ है तो करुणा है
क्षमा है
माँ है तो
रोना मना है.

मैं मुस्काता ही जाऊं

कार्तिकेय ये कविता तुम्हे समर्पित है , ये कविता मैंने करीब एक साल पहले लिखी थी और लिख कर भूल गया , आज जब इसे पढ़ा तो लगा जैसे ये तुम्हीं को ध्यान में रख कर लिखी हो.


जब जब आये रुदन मुझे
तब मेघराज तुम आ जाना
ले कर के घनघोर घटा फिर
बरस बरस बरसा जाना

तेरे उस जल के भीतर ही
अश्रु मेरे भो छुप जाएँ
जल में जल मिल जाए
और ये विश्व मुझे हँसता पाए

क्वचित मात्र भी भान न हो
मेरे दुःख का इन लोगों को
बस मुस्काता ही भोगूँ मैं
इस जीवन के भोगों को

त्रास बड़े हों या की छोटे
मैं मुस्काता ही जाऊं
सुख या दुःख तेरे प्रसाद हैं
ले आनंद उन्हें पाऊं

है जीवन ये बड़ा आनंदी
ये सन्देश मुझे तो है
इसको मैं सब तक पहुंचाऊं
इतनी शक्ति मुझे दे दे .

बात करते हो

किस ज़माने की बात करते हो
आजमाने की बात करते हो

दर्द की हद से हम गुज़र भी चुके
तिलमिलाने की बात करते हो

रो चुके हाल-ऐ-दिल सर-ऐ-बाज़ार
तुम जताने की बात करते हो

इस चमन में युगों से सूखा है
ग़ुल खिलाने की बात करते हो

मैं नहीं हूँ किसी से रूठा हुआ
क्यों मानाने की बात करते हो

है अँधेरा बहुत सियाह यहाँ
घर जलाने की बात करते हो

आ भी जाते हो चुप से ख्वाबों में
और न आने की बात करते हो

है उदासी अब तो मेरा सबब
मुस्कुराने की बात करते हो

खुद गरेबाँ में झांक कर देखो
क्यों ज़माने की बात करते हो