बुधवार, 12 मई 2010

मैं मुस्काता ही जाऊं

कार्तिकेय ये कविता तुम्हे समर्पित है , ये कविता मैंने करीब एक साल पहले लिखी थी और लिख कर भूल गया , आज जब इसे पढ़ा तो लगा जैसे ये तुम्हीं को ध्यान में रख कर लिखी हो.


जब जब आये रुदन मुझे
तब मेघराज तुम आ जाना
ले कर के घनघोर घटा फिर
बरस बरस बरसा जाना

तेरे उस जल के भीतर ही
अश्रु मेरे भो छुप जाएँ
जल में जल मिल जाए
और ये विश्व मुझे हँसता पाए

क्वचित मात्र भी भान न हो
मेरे दुःख का इन लोगों को
बस मुस्काता ही भोगूँ मैं
इस जीवन के भोगों को

त्रास बड़े हों या की छोटे
मैं मुस्काता ही जाऊं
सुख या दुःख तेरे प्रसाद हैं
ले आनंद उन्हें पाऊं

है जीवन ये बड़ा आनंदी
ये सन्देश मुझे तो है
इसको मैं सब तक पहुंचाऊं
इतनी शक्ति मुझे दे दे .

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